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स्वयंभू


इस धरातल पर रहने वाले खुद की रोज मर्रा की जिंदगी जिते समय शायद ही किसी मानव प्राणी को  ब्रह्मांड मे घटीत इस भौगोलिक सत्य की कल्पना हो l कि इस आकाशगंगा मे स्थित गुरु ग्रह के अस्तित्व से हमारी पृथ्वी का अस्तित्व बना हुआ है l अथवा तो हम टिके हुए है l

ब्रम्हांडीय संरचना मे अनेकानेक उल्कापात और भी कई भौगोलिक घटना ए घटित होती रहती हैl जिस कारण से यह पृथ्वी कभी भी नष्ट हो सकती हैl अपितू यह चीजे पृथ्वी पर पहुंचने से पहले हि गुरु ग्रह खुद पर ले लेता हैl और इसी कारणवष पृथ्वी अपने आप बच जाती है l

इसी प्रकार से प्रत्येक मानव के जीवन में गुरु एक दिशादर्शक कवच के रूप मे होता है,ऐसा हम कह सकते है l
आषाढ मास की पूर्णिमा को हम ,भारतीय परंपरा मे गुरुपौर्णिमा अथवा तो व्यासपौर्णिमा के रूप मे मनाते है l वैसे देखा जाये तो भारतीय संस्कृती एक नित्य उत्सव की संस्कृती है l
भारतीय सनातन धर्म में ब्रम्हांड मे या अवकाश (space) मे  जिस प्रकारकी ग्रह संरचनाए बनती है , उसी आधार पर उत्सव मनाये जाते हैl
भारतीय सनातन धर्म कोई अलग धर्म नही हैl सनातन धर्म अर्थात निसर्ग नियम के अनुसार इतना ही अर्थ है l
निसर्ग नियम की सार्वकालिक सत्यता , उस आधार पर ब्रम्हांड मे तयार होती ऊर्जा और ब्रह्मांडीय उत्पत्ती अर्थात हम इस ब्रम्हांडीय ऊर्जा का उपयोग कर, स्वयं का उत्थान कर सके इस दृष्टी से मनाये जाने वाले भारतीय उत्सव l

सूर्य का दक्षिणायन शुरू होने के बाद आने वाली पहली पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के संबोधन से जाना जाता हैl इसी दिन चंद्र गुरु ग्रह के धनराशी मे होता है lइसी के साथ पूर्व शडा और उत्तर शडा इसी गुरु ग्रह के नक्षत्र में  चंद्र होता हैl और इसी के बराबर सामने 180° मे सूर्य मिथुन राशि और आर्द्रा नक्षत्र मे होता है l
ग्रहो की यह संरचना ब्रह्मांड मे एक प्रकार की मार्गदर्शक ऊर्जा का निर्माण करती हैl यह मार्गदर्शक ऊर्जा और हमारी मानसिकता एकात्म हो सके, इसलिये गुरुपौर्णिमा मनाई जाती है lऔर जैसे की हम सबको ज्ञात हैl चंद्र मनका कारक हैl इसलिये यह दिन प्रत्येक मानव प्राणी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है l
गुरु ये शब्द गु और रु इंन दो अक्षरो से बना हुआ है l गु इस अक्षर का अर्थ अंधकार  अथवा अज्ञान है l तो रु इस अक्षर का अर्थ अंधकार अथवा अज्ञान को दूर करने वाला, मेरे जीन विचारो ने  मेरे अंदर सीमित मान्यताए बना राखी है, मान रखी है ,जब की मुझे पता है की में असीम हुं l इस सीमित ताको दूर करने वाली मार्गदर्शक शक्ती का  नाम  ही गुरु है l
अद्वैततारक उपनिषद कहेता है – की गुरु यह कोई व्यक्तिविशेष नही है l गुरु यह एक ब्रम्हांडीय ऊर्जा है l
गुरुपौर्णिमा को व्यासपौर्णिमा के नाम से भी जाना जाता हैl ब्रह्मपुराण भगवद्गीता मे जो व्यास वंदना हैl उसी  श्लोक मे यह बताया गया है ,कि जो हमे प्रकाश देता हैl जो हमारे ज्ञानरूपी दिये मे तेल डालने का काम करता हैl जो मानवी जीवन मे मार्गदर्शन करने वाली ऊर्जा बढाने का काम करता हैl उसे व्यास कहा जाता है l
अर्थात गुरु अथवा व्यास का अर्थ upliftment या upgradation ही है l
हम हमारे जीवन में किसी भी प्रकार का मार्गदर्शन करने वाले व्यक्ति को गुरु मानते हैl परंतु  शास्त्रार्थ यह कहता है की, हमारे जीवन का अर्थात मानवी जीवन का उद्देश समझाने के लिए ,हमारे आत्मबोध के लिए, हमारी कर्मशुद्धी के लिए जो हमे दिशा देता है उस दिशा के लिए गुरुपौर्णिमा का यह दीन श्रेष्ठ माना जाता है l

क्यों की मानव का पहला जन्म माता के गर्भ से होता है l और उसका दुसरा जन्म इस भूतल पर मैने क्यू जन्म लिया है?  यह जानने के बाद होता है lइसी तरह मानवी जीवन के उद्देशपूर्ती के लिये दिशा दर्शन करने वाले व्यक्ति को गुरु अथवा तो आचार्य माना जाता है l
फिल्म यह प्रश्न खडा होता है कि निश्चितता से गुरु फिर कहे किसे? इसके उत्तर मे गुरु के कुछ लक्षण बताये गये है l इसमे से पहिला लक्षण अर्थात जिस व्यक्ती को शास्त्र का अर्थ पता होl इस अर्थ को  वो समझता हो lउसमे छुपे रहस्य एवं मर्म को जानता  हो वहीl
गुरु का दुसरा लक्षण यह है ,की जो व्यक्ती सारी लक्षन को सिखाता हो lवह सारे लक्षण उसके आचरण मे होना आवश्यक है ऐसा जो हो वह l
गुरु का तिसरा लक्षण अर्थात उपरोक्त नमूद दोनो लक्षणोसहित जिस व्यक्तीने स्वयं के सामर्थ्य से या उपदेश से ,या वर्तन से अन्य लोगो मे सद्गुनों का विकास हो यह सामर्थ्य हो l
इसीलिए आज की इस समकालीन व्यवस्था मे किसको हम अपना गुरु बनाये, किसको आपना गुरु माने इस पर सखोल चिंतन होना बहुत आवश्यक हो जाता है l

मूलतः झेन एवम बौद्ध परंपरा मे ऐसे स्पष्ट किया गया है की ,प्रत्येक व्यक्तीने  स्वयं का अंत:करण सीखने के लिए तयार करना प्रत्येक व्यक्ती की  अपनी जिम्मेदारी हैl जब व्यक्ती शिष्यत्व के लिए तयार होता है ,तब गुरु स्वयंप्रकट हो जाते है l
“When disciple is reading master appears”
परंतु अनेक ग्रंथ एवम पुराणू अथवा तो मानव उत्थान करनेवाले ग्रंथो मे ,गुरु की महिमा एवं आवश्यकता को अनन्य साधारण माना गया हैl हम जिनको प्रत्यक्ष अवतारी पुरुष मानते है lजैसे की भगवान राम हो,या भगवान कृष्ण अथवा तो महाभारत  के कौरव हो या पांडवl इन सभी को अपने -अपने गुरु थेl गुरु वशिष्ठ गुरु सांधिपणी, गुरु द्रोणाचार्य l अपितु महाभारत मे हमे  उपरोक्त उदाहरनो सहित एक ऐसा भी उदाहरण मिलता हैl जहा अपनी सारी शिक्षा सारा  ज्ञान प्रत्यक्ष गुरु से ना लेकर गुरु की मूर्ति से एकलव्यने प्राप्त किया l

श्रीमद् भागवत पुराण मे स्वयं कृष्ण भगवान जो की विष्णू के अवतार है lवही दुसरे विष्णू के अवतार भगवान दत्तात्रय का उद्धव गीता मे उल्लेख करते है lदत्त महाराज यदु राजा से संवाद करते समय गुरु के विषय मे कहते -“है मेरा आत्माही मेरा गुरु है l”
फिर भी दृश्य रूप मे दत्त भगवान ने अपने 24 गुरू माने हुए थेl जिसमे पंचमहाभूतो से लेकर सूर्य ,चंद्र तथा पिंगला नामक एक वैश्या  भी थी l
समस्या फिरसे यह खडी होती है lकी एक परंपरा गुरु के अनन्य साधारण महत्व को दर्शाती  है ,आवश्यकता समझाती है lऔर दुसरी परंपरा गुरु की आवश्यकता को नकारती है l ऐसे समय हमे स्वावलंबी होना बहुत जरुरी है क्यो की हमारा आत्माही हमारा मार्गदर्शक है l

उपर कही गयी दोनो चीजे अलग दिखती है परंतु हे एक ही l व्यक्ती के अंदर सीखने की इच्छा निर्माण हो, सीखने के लिए व्यक्ति का मन खुल जाये ,फिर इस सृष्टी मे “मेरे लाखो गुरू” हो सकते है lकोई भी मेरा गुरु हो सकता है, और मै किसी से भी सिख सकता हु lयही झेन परंपरा का मुल सिद्धांत है l

सिर्फ फिर महत्वपूर्ण विषय एक ही रह जाता है की मुजमे शिष्यत्त्व तयार हुआ है या नही?
जप तक अर्जुन मे शिष्यत्व तयार नही हुआ तब तक भगवद्गीता का अवतर नही हुआ l तू सारी बातो का सारी यही है अगर गुरु को हमे प्रकट करना हो तो मुझमे शिष्यत्व का प्राकट्य होना महत्वपूर्ण है l
लौकिक विषय से लेकर अलौकिक विषयोंतक हम तक पहुचाने वाला ,प्रत्येक व्यक्ती हमारे लिए गुरु है ऐसा शास्त्र कहते है l  व्यक्ति का शिष्यत्व एवं गुरु का गुरुत्व व्यक्ति मे कुशलता निपुणता एवं पांडित्य प्रदान कर सकता है l
गुरुतत्त्व का अर्थ क्या है? यह समझने के लिए गुरुगीता स्कंदपुराण मे माता पार्वतीने भगवान शंकर जी को कुछ प्रश्न पूछे थे जिनके उत्तर मे भगवान शंकरजीने कुछ गुरु के प्रकार माता को बताए थे-
उसमे पहिला प्रकार अर्थात सूचका गुरु -जो विषयो को पढाते है lछात्र में कौशल्य का निर्माण करते हैl कौशल्य का ज्ञान देते है l
दुसरा गुरु का प्रकार अर्थात वाचका गुरु -यह गुरु कौशल्य को बढ कर उनके साथ ही क्या करना चाहिए? अथवा क्या नही करना चाहिए? इनका भी ज्ञान प्रदान करते है l

भगवान ने तिसरे गुरु को बोधका गुरु- कहा है यह कौशल्य को प्रदान करने के साथ संपूर्ण व्यक्तिमत्व का विकास करते है l

चौथे गुरू को निषिद्ध गुरु माना गया है lजो व्यक्ती का पतन हो, व्यक्ति के माध्यम से दुसरो को हानी कैसे हो? यह सिखाते हैl अर्थात हमे क्या नही करना चाहिए ?यह बाते जिंन से स्पष्ट होती है उन्हे निशिद्ध गुरु कहते है l

और पाचवा गुरू का प्रकार अर्थात विहिता गुरु -जो हमे संसार के स्वरूप से अवगत कराते है lऔर उसी माध्यम से वैराग्य तक पहुंचाते  है l
छटवे गुरु के प्रकार को करणाख्या गुरु – कहा है जो शिष्य को जीव जगत का स्वरूप एवं ईश्वर का स्वरूप दिखाते है l
आखरी गुरु परम गुरु है -ये ऐसे गुरु है जो शिष्य को  कर्म धर्म समझा कर ,शिष्य के अंदर वैराग्य तयार कर मोक्ष प्रत पहुंचते है l
इन सभी बातो का सार एक ही हैlकि हमे गुरु मिले न मिले हमारी लिटमस  टेस्ट यही है, कि हममे शिष्यत्व का निर्माण हुआ है क्या ?
एक वैराग्यवती नामक भगवान विष्णू की परमभक्त थी l बहुत अमीर युवती थी l हर समय भगवान विष्णू की मंदिर मे सेवा करना , जपजाप्य करना, भोग लगाना lयही उसकी दिनचर्या थी lस्वभाव से बहुत भोली l एक चोर इस युवती का हर दिन निरीक्षण करताl उसे उस युवती की भक्ती के बारे मे कोई आस न थी l सिर्फ उसके अलंकारो की आस थीl एक दिन उस चोर ने एक साधू का रूप लेकर मंदिर मे प्रवेश किया lऔर उस युवती से पानी की मांग कीl युवतीने तत्काल ही , पानी लाकर साधू महाराज के सामने प्रस्तुत कियाl पर अब साधूने अलग ही शर्त युवती के सामने अलग रखी l और कहा मे उस व्यक्ति के व्यक्ती के हात से पानी ग्रहन नही करुंगा lजिस व्यक्ती का कोई गुरु नही lस्वभाव के अनुसार वैराग्यवती नाराज हो गई lउसने तुरंत ही साधू से इस समस्या का समाधान पूछा साधूने तुरंत ही जबाब दिया ,की  “मै तुम्हे तुम्हारा गुरुपद
स्वीकारने के लिये तयार  हुं lपर ये काम यहा नही होगा इसके लिए तुम्ही मेरे साथ एकांत मे जंगल मे आना पडेगा l जंगल मे जाने के बाद चोर रुपी साधु ने युवती के सभी अलंकार निका ल लिये और उस युवती को एक वृक्ष से बांध दिया lऔर कहा की जब तक मै तुम्हे खुद छोडणे  ना आऊ , तब तक यहा से जाना नही l

संध्या समय तक अपनी बेटी को घर मे न पाकर, उसके पिता वैराग्यवती के खोज में निकल कर खोचते खोजते जंगल तक आ पहुंचे l जहा उन्होने अपनी बेटी को वृक्ष से बंधा  हुआ पाया lउन्होने वैराग्यवती को वहा से छोडने की कोशिश की ,परंतु वैराग्यवतीने तुरंत ही इन्कार कर दियाl  और कहा मेरे जो गुरु है उन्होने मुझे इस वृक्ष से बांध रखा है lवही आयेंगे और वही मुझे  छुडायेंगे आप इसका प्रयत्न ना करे l

दुसरी तरफ विष्णु भगवान भी त्रस्त हो गये की, दो दिन हो गये ना मंदिर मे कोई हालचाल, नाही पूजा , नाही भोग , उन्हे तुरंत ही नारद मुनी को वैराग्यवती को बंधन मुक्त करने के लिए जंगल मे भेजा lवैराग्यवतीने नारद मुनी को पहचाना और पहचानते ही नमस्कार किया lअब नारद मुनीने वैराग्यवती को वृक्ष से मुक्त करना शुरू किया ,परंतु वैराग्यवतीने उनको मना कर दिया lयह घटना नारद मुनीने जा कर भगवान विष्णू  से कही तो, वे स्वयं ही वैराग्यवती को वृक्ष के बंधन से मुक्त करने  के लिये जंगल मे आयेl बहुत ही पवित्रता के साथ भगवान विष्णू की वैराग्यवतीने दर्शन कीए,परंतु भगवान विष्णू से कहा आप इस वृक्ष से मुझे मुक्त ना करे lमेरे गुरु आयेंगे और वही मुझे  छूडायेंगे l

इस पर भगवान विष्णू ने नारद को आज्ञा दि , जाओ उस चोर को लेकर आओl कही चोरी ही कर रहा होगा और लाकर इस बच्ची को इस वृक्ष से मुक्त करो lनारद मुनीने तुरंत ही चोर को हाजीर किया ,और वैराग्यवती को  वृक्ष मुक्त किया l मुक्त होने के बाद वैराग्यवतीने भगवान विष्णू एवं नारद मुनी के सामने कहा की देखिये भगवान मेरे गुरु कितने महान है l कि जिनके कारण मुझे आपके एवं प्रत्यक्ष नारद मुनी के दर्शन हो गये ऐसे गुरू का मे भला कैसे त्याग करू?

पंच इंद्रिय की कक्षा मे न आने वाली अनेक बाते इस ब्रम्हांड मे अस्तित्व मे हैl इसे ध्यान मे लेकरं  प्रत्येक व्यक्तीने अपने मे शिष्यत्व को कैसे निर्माण करे ?यह अपना अपना ज्ञान है l क्यो की अंत में
“भाव ही भगवान है l”
और शिष्यत्व की सही कसोटी तो यही है
When disciple understood….. Master disappears…… Mystery of wisdom.    llश्री माऊली के चरण मे समर्पित ll
                       अश्विनी गावंडे
           

2 Responses

  1. खूप सुंदर आणि आदर्श लेख..
    तुम्हाला गुरुपौर्णिमेनिमित्त खूप खूप शुभेच्छा ताई 🙏
    तुमचे आशीर्वाद सदैव माझ्या पाठीशी राहोत हिच कायम प्रार्थना 🙏

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